Tuesday 2 August 2016

जानिए कौन थे गणपति(गणेश)

गणपति अर्थात गणेश ।गणपति जिसे कई नामो से जाना जाता है जैसे विघ्नेश्वर, एकदंत, विघ्नेश ,लम्बोदर  विघ्नकृत,विनायक  आदि ।

गणेश की जो प्रतिमा वर्तमान में मिलती है वह हाथी के सर वाली दिखाई जाती है जिसका वाहन मूषक होता है ।

गणपति की  उत्पत्ति की जो प्रमुख पौराणिक कथा है वह यह है की उनकी माता पार्वती ने उन्हें अपने मैल से उतपन्न किया ।
दूसरी कथा ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार गणेश के जन्म के बाद उन पर शनि की दृष्टि पड़ी तो उनका सर कट गया इसलिए शोक में डूबी पार्वती पर दया कर एक हाथी का सर लगा दिया ।
परन्तु स्कन्द पुराण में इसके उलट यह कहा गया है , की सिंदूर नामक एक दैत्य पार्वती के गर्भ में प्रविष्ट हो गया और भूर्ण का सर खा गया अत: बालक बिना सर के उतपन्न हुआ ।उसके बाद बालक ने गजासुर नाम के दैत्य का वध कर उसका सर लगा लिया ।

खैर, कहानी कुछ भी हो पर यह तो तय है की गणपति का सर हाथी का आरम्भ से नहीं था यह तय है । हाथी के सर की कल्पना बाद की है ।
गण का साधारण शाब्दिक अर्थ होता है ' साधारण जन' और पति का अर्थ हुआ ' मुखिया ' अर्थात साधारण जानो का मुखिया  ।विल्सन ने 'गण' का अर्थ किसी दर्शन या सम्प्रदाय बताया है ।

पाणिनि ने गण का अर्थ संघ बताया है ।

हम जानते हैं की गोतम बुद्ध के समय सर्वप्रथम  संघ प्रकाश में आये जो विभिन्न श्रेणियो ( शिल्पिओ ) का समूह होता था ।


आइये हम अब गणपति के विषय में और रोचक जानकरी एकत्रित करते है , देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय अपनी प्रसिद्ध कृति ' लोकायत' में लिखते हैं ।

आरम्भ में गणपति ब्रह्मणिक देवता नहीं थे, उन्हें देवत्व बाद में प्राप्त हुआ है ।
प्राचीन ग्रन्थो में ब्रहस्पति का एक नाम भी  गणपति माना गया है ,गणपति और बृहस्पति नाम की समानता ऋग्वेद के दूसरे मंडल 23वें सूक्त में मिल जायेगी । बृहस्पति अवैदिक और भौतिकतावाद ( लोकायत) के गुरु माने गए हैं।
गणपति के दो नाम और प्रचलित थे लोकबद्ध और लोकनाथ ।

लोकबद्ध का अर्थ हुआ लोगो के मित्र और लोकनाथ का अर्थ हुआ लोगो के रक्षक ।
लोक का सांकेतिक अर्थ होता है साधरण जन ।लोकायत भी इसी नाम से बना है 'लोकायत' अर्थात साधारण जानो में प्रचलित ।
गणपति का सबंध तंत्रवाद से भी था जैसा की लोकायत से, तांत्रिक साहित्य में  गणपति  50 अधिक वैकल्पिक नाम संबोधित हुए हैं ।इसके अतरिक्त आन्दगिरि के 'शंकर विजय' में कई गणपत सम्प्रदाय या गणपति के अनुयायियो का जिक्र है ।आन्दगिरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है की गणपति के अनुयायी और कोई नहीं केवल वामाचारी यानि  तांत्रिक थे ।

आरम्भिक काल में गणपति को श्रेष्ठ देवता नहीं माना गया है उन्हें कष्ट और विपत्ति लाने वाला देवता माना गया था पर बाद में उनके बारे में विचार बदल गए ।गणपति  को कष्ट और विपत्ति लाने के देवता से सफलता और सौभाग्य का देवता मानने का काल पांचवी इसा पश्चात हुआ ।

पांचवी शताब्दी में लिखा गया ' मानव गृह्य सूत्र ' नामक धर्म ग्रन्थ में गणपति या विनायक केवल भय या तिरस्कार की भावना उतपन्न करते हैं ।

इसी प्रकार याज्ञवल्क्य ने भी गणपति के प्रति घृणा दर्शाई है ।वह कहता है की गणपति से आक्रांत वयक्ति लाल कपडे हुए और सर मुंडे हुए व्यक्ति स्वप्न में देखता है ।

सर मुंडे और लाल वस्त्र  पहने बौद्ध भिक्षु होते थे ।

मनु ( 3/219) में तो ब्राह्मणो को गणो का अन्न तक खाने को निषेध कर देते है ।मनु सीधा शुद्रो और दलितों का अन्न खाने से मना करते है , यानि मनु के अनुसार गण शुद्र अछूत रहे होंगे ।

गणपति के प्रति घृणा केवल ग्रंथो तक न रही बल्कि प्रसिद्ध इतिहासकार गुप्त अपनी पुस्तक शिक्षा और सभ्यता में कहते हैं की गणपति की प्राचीन प्रतिमाओ में उन्हें  भयानक दानव दिखाया गया है ।

यदि हम गणपति के प्रचीन नामो जैसे विघ्नकृत, विघ्नेश , विघ्नराज जैसे शब्दों को देखेतो इनका सीधा और सरल अर्थ होता है विघ्न डालने वाला परन्तु बाद में इन शब्दों को उपेक्षित कर आधुनिक विद्वान् इनका अर्थ करते हैं ' विघ्न को हरने वाला' ।
परन्तु धर्म सूत्र में गणपति के लिए एक शब्द का इस्तेमाल किया है ' विघ्न' अर्थात जो बाधा उत्तपन्न करे।

गणपति के बारे में रोचक जानकरी और देते है देवी प्रसाद जी , गणपति को एक दन्त कहा गया है यानि एक दांतो वाला ।इस के बारे में ब्रम्ह वैवर्त पुराण के कथा है की परशुराम और गणपति के बीच युद्ध हुआ और जब परशुराम ने कुल्हाड़ा मारा तो गणपति का एक दांत टूट गया ।

सब जानते हैं की परशुराम पुरोहित  सत्ता के प्रबल पक्षधर थे तब गणपति ने परशुराम से युद्ध किया तो इसका तात्पर्य यह हुआ की गणपति के सम्मुख उनका शत्रु पुरोहित वर्ग था ।

बंगाल में गणपति की एक ऐसी मूर्ति मिली है जो कमल सिंहासन के नीचे उन्हें पड़ा हुआ दिखाती है जिसके हाथ में तलवार और ढाल है ।अर्थात उन्होंने बिना युद्ध किये समर्पण नहीं किया होगा ।कमल प्रतीक है विष्णु का , विष्णु प्रतीक है पुरोहित वर्ग के ।

गणपति का विघ्न देवता से सिद्धिदाता का उदय कब हुआ यह समझना कठिन नहीं , कोंडिगटन की ' एशेन्ट इंडिया ' में गणपति की ऐसी प्रतिमा का उल्लेख है जो पूर्ण वैभव और साज सज्जा से दिखाया गया है ।यह प्रतिमा 5वीं शताब्दी के आस पास की है और इसे गणपति के नए अवतार की प्रारम्भिक मूर्तियो में से समझा जाता है ।

यही समय गुप्त राजाओ का भी था , कुमारस्वामी कहते हैं की गुप्त राजाओ के शासन से पहले गणेश की कोई मूर्ति नहीं थी ।यानि की गणपति को सिद्धि दाता और उनकी उपासना इस काल में आरम्भ हुई ।

आगे देवी प्रसाद जी फिर कहते है की मध्य काल के ग्रन्थो में गणेश ( गणपति) के हस्ती मुख , मूषक वाहन आदि कई तरह जिक्र है जबकि प्राचीन ग्रंथो में ऐसा नहीं है ।

इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं की हस्ती सर टोटम (प्रतीक चिन्ह ) दर्शाता है । जैसा की हैम जानते है दुनिया भर में प्रत्येक काबिले का एक टोटम होता है जो पशु , पक्षी अथवा पेड़ पौधों पर हो सकता था ।
जैसे जब यूनानी भारत आये तो उनका टोटम पंख फैलाये बाज था ।

भारत में भी टोटमवाद रहा है , मतंग( हाथी)  राजवंश की स्थापना कोसल के बाद के काल की है ।मतंग राजवंश  ने सिक्के चलवाए और एक विस्तृत राजसत्ता कायम की ।
मतंग राजसत्ता ललित विस्तार के अनुसार मौर्य राजाओ से पहले की है पंरतु हम यह नहीं कह सकते की मतंग राजसत्ता स्थापित होने से  गणपति के देवत्य का स्थान प्राप्त हुआ होगा ।
परन्तु इससे यह सिद्ध होता है की हाथियो (टोटम) की राजसत्ता कभी रही होगी ।

अब केवल मतंग सत्ता  ही नहीं हस्ती सत्ता नहीं रही होगी बल्कि शिलालेखो से पता चलता है की बहुत से हस्तिसत्ता भारत में रही जैसे खारवेल की रानी ने स्वयं को हस्ती की पुत्री बताया ।

एक और गौर करने लायक उदहारण देना चाहूँगा मैं आपको , की बौद्धों का और हाथियों का सम्बन्ध जग उजागर है । किद्वंतीयो के अनुसार गोतम के जन्म से पूर्व उनकी माता के सपने में हाथी आता है ।

अतः बाद के कई बौद्ध राजो जैसे मतंग आदि ने हाथी को अपना टोटम बनाया ।
तो यह सिद्ध है की गणपति का जो हस्ती सर है वह दरसल बौद्ध राजाओ का टोटम था ।

अब आते हैं गणेश की सवारी मूषक पर ।

जिस तरह से हाथी प्राचीन काल में बौद्ध राजाओ का टोटम रहा है उसी प्रकार मूषक भी प्राचीन कबीलो या समूहों का टोटम रहा है ।

मूषक लोग दक्षिण भारत के निवासी थे , नाट्यशास्त्र ( जो की इसा पूर्व 100 और इसा पश्चात 100 तक लिखी होने की सम्भावना है )में तोसल, कोसल और मौसल (मूषिका) जनो का उल्लेख है ।

पुराणों में  विंध्य देशो के  मूषक जानो का उल्लेख मिल जाता ।पर यह स्पष्ट नहीं है की मूषको की राजसत्ता भी कभी रही होगी ।

जाने मने इतिहासकार जायसवाल जी जिन्होंने महत्वपूर्ण शिलालेखो को पढ़ने और उन्हें समझने का उद्देशय ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था ।वे कहते हैं
मूषको को पराजित होने की कथा प्रसिद्ध हस्तिगुफा ( हाथी गुफा)में कलिंग के राजा खारवेल के शिलालेखो में मिलती है ।ये शिलालेख 160 इसा पूर्व बताये जाते हैं ।जायसवाल जी बताते हैं की प्रथम शिलालेख की चौथी पंक्ति में उल्लेख है की राजा खारवेल ने मूषको को पराजित किया ।जायसवाल के अनुवाद के अनुसार " वह मूषिको की राजधानी विनिष्ट कर देता है

यह विडम्बना है की ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण शोधकार्यो के वावजूद हस्तिगुफा के शिलालेख आज भी पढ़ना दुष्कर है ।पर इस बात पर देसी विदेशी सभी इतिहासकार एक मत है की हाथी और मूषक प्राचीन समुदाय के टोटम रहे हैं ।

तो हम यह कह सकते हैं की गणपति का हस्तिसर वास्तव में यह दर्शाता है की यह गणो का टोटम रहा होगा जिसका सम्बन्ध कंही न कंही बौद्ध समुदाय से रहा होगा ।
और मूषक किसी अन्य जनजातीय काबिले या समूह का टोटम जिसे किसी बौद्ध राजा ने पराजित किया होगा ।

बाद में वैदिक धर्म में तंत्रवाद के विलय के कारण वर्तमान गणपति की कल्पना का उदय हुआ होगा ।

क्रमश:




No comments:

Post a Comment