Tuesday 23 August 2016

धर्म और नैतिकता



बहुत से विद्वान् विचारको की नज़रो में धर्म या मज़हब मध्ययुग के अन्धविश्वास से अधिक कुछ भी नहीं है ।
विश्व इतिहास के  मध्ययुग में धर्म या मज़हब का स्थान बड़ा भव्य था । बड़े बड़े विजेताओं की जीत का लक्ष्य ही धर्म मज़हब का विस्तार था जिसमे निजी स्वार्थ तो था ही धर्म का नाम लेके राजनैतिक विस्तार भी था ।

बड़े बड़े शासको ने धर्म मज़हब के नाम पर लाखो इंसानो को युद्ध में झोंक देते थे । धर्म मज़हब के नाम पर अमानुषिय अत्याचार किये जाते थे , फिर भी धर्म मज़हब का इतना नशा था की लोग उन पर अंधविश्वास और अटूट श्रद्धा रखते थे क्यों की धर्म मज़हब उन्हें स्वर्ग और अगले जन्म का लालच देते थे ।

जैसे जैसे विज्ञानं उन्नति करता गया नविन चेतना की प्रतिष्ठा हुई , अपने आसपास के जगत देखने का नया दृष्टिकोण स्थापित हुआ । पहले सोचने का अधिकर केवल पुरोहित और शासक वर्ग को ही था , पर विज्ञान के प्रसार और आधुनिक युग में एक साधारण इंसान को भी प्रश्न करने, तर्क करने और शंका करने का अधिकार मिला।

अब धर्म में जो शाश्वत सत्य माने जाते थे उन पर भी शंका उठी , जिन धर्म और शास्त्रो द्वारा आम जनता को मुर्ख बना पुरोहित वर्ग अपना उल्लू सीधा करता रहा उन पर प्रश्न किये जाने लगे ।धर्म हमेशा अपने दो खोटे सिक्के जिन्हें पाप और पुण्य कहा जाता है उन्हें जनता में चलाता आ रहा है , जनता पाप पुण्य के प्राचीन माप दण्डो को मान कर पाखण्डी पुरोहितो के जाल में फंस के उनकी जीविका का साधन मुहैया कराती रही है ।
पाप पुण्य की व्याख्या हर ईश्वरीय ठेकेदार के अनुसार भिन्न भिन्न रही है , एक चीज एक मनुष्य के लिए पाप है तो दूसरे के लिए पुण्य।

अधिकतर धर्मिक प्रवृति के लोगो को 'भूत' से प्रेम होता है ,जो अतीत में हुआ वही परम सत्य है .. जो ग्रन्थो में लिखा है वही अकाट्य सत्य है ।
सतयुग की परिकल्पना इसी का परिणाम है , सतयुग में जो होता था सब सही था । गीता में जो लिखा है वही सत्य है ।लोग बड़े गर्व से कहते हैं की ' गीता का ज्ञान संसार में सबसे श्रेष्ठ है ... जितना गीता में ज्ञान है उतना किसी भी संसार के ग्रन्थ में नहीं " ऐसी  फोटो बड़े गर्व से प्रचारित की जाती है जिसमे कोई अंग्रेज कंठी माला पहने गीता को हाथ में लिए खड़ा रहता है । प्रचारित यह किया जाता है की अंग्रेज भी गीता की कद्र करते हैं , उसमे श्रद्धा रखते हैं ।
गीता में संसार का ज्ञान है यह हमारी मौलिक धारणा नहीं है , बल्कि बनावटी है । कुछ पश्चमी लोगो ने गीता को पढ़ा क्या हम गर्व से फूल गए की हम गुलाम रह चुके , हीन, काले लोगो के पास भी कुछ वस्तु है जिसकी प्रशन्सा अंग्रेज तक करते है ।

यह हमारी मानसिक दासता ही रही है की जिसे पश्चिम के लोग श्रेष्ठ माने उसी को हम भी श्रेष्ठ मान लेते हैं । गीता के बारे में भी यही धारणा रही , कुछ अंग्रेजो ने इसकी प्रशंसा की तो यह हमारे लिए पूजनीय हो गई ।

यही कारण रहा की हजारो बार गीता का ' ज्ञान' पढ़ने के बाद भी हम उससे कुछ सीख नहीं ले पाये थे और न ही अब । लाखो बार गीता का ज्ञान पढ़ने के बाद भी हम विदेशियो से अपनी गुलामी का तोड़ नहीं खोज पाये थे ।

वास्तव में धर्म जो शास्वत है वह किसी भी आसमानी या ईश्वरीय पुस्तक की सीमाओं में नहीं बंधा होता है , धर्म काल और देश से परे की वस्तु है । आचरण की वस्तु है , धर्म जो शास्वत है वह नैतिकता है जिसे धर्म का लबादा ओढ़ा के पेश किया जाता है  ... नैतिकता किसी धर्म की मोहताज़ नहीं होती  ।

धर्म गुरु जानते थे की धर्म के झूठे जाल में लोगो को ज्यादा दिन नहीं फंसाया जा सकता अतः उन्होंने नैतिकता को धर्म में घाल मेल कर दिया ताकि नैतिकता को ही इंसान धर्म समझ ले और उलझा रहे ।


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