Sunday 14 August 2016

अल्लाह की मार- कहानी

"अल्लाह!! ... अब यंहा से भी टपकने लगा क्या करूँ ?
"या अल्लाह रहम कर!! " असहाय और अश्रुपूर्ण नेत्रो से पुराने और लगभग जर्जर हो चुके मकान की टपकती छत को देखते हुए रशिदा ने कहा ।और चारपाई जिसके बाँध लगभग टूट ही चुके थे उस पर लेटे  बुंदुखां को  तिरपाल के एक छोटे टुकड़े से ढंकने का प्रयास किया ।

बुंदुखां ,करीब दो साल हो गया थे  आधे अंग में लकवा मारे तब से खाट पर ही पड़ा रहता ।बुंदुखां मालवाहक रिक्सा चलता था पर लकवा मारने से एक हाथ और एक पैर बेकार हो गया तब से किसी काम का न रहा ,इलाज के लिए सरकारी हस्पताल के बहुत चक्कर लगाये थे बुंदुखां को लेके रशिदा ने  ।जितनी थोड़ी बहुत जमा पूंजी थी सब खर्च हो गई इलाज में पर कोई फायदा न हुआ ,थक के आस छोड़ दी और घर पर एक चारपाई पर लिटा दिया तब से अस्थिपिंजर सा पड़ा रहता था बुंदुखां ।


कुछ दिन तक तो रिस्तेदारो ने मदद की फिर सबने मुंह फेर लिया ,पुस्तैनी मकान था जो जर्जर अवस्था में था बस वही एक सर छुपाने की जगह थी ।बारिशो में वह भी साथ छोड़ देता और झर झर आंसू बहाने लगता अपनी खस्ता हालत पर ।

दो बच्चे आरिफ और रज़िया भी थे , आरिफ 7 साल का और रज़िया 5 साल की , उन्हें तालीम के लिए पास के ही मदरसे में दाख़िल करवा दिया था  ।

पर जीविका तो चलानी ही थी न, निर्मम भूँख तो रोज ही लगती थी ।रशिदा को भीख माँगना क़बूल न था अतः उसने अपना और परिवार का पेट पालने के लिए खिलौने बेचने का निर्णय लिया ।बाजार से खिलौने लाती और टोकरी में रख  गली मोहल्ले में बेचती , जो थोडा बहुत मिलता उससे ही गुजरा कर लेती।

पिछले तीन दिन से निरन्तर बारिश हो रही थी ,बीच में एक आध घण्टे के लिए बेशक रुक जाती पर मौसम बारिश का बना ही रहता ।ऐसे में रशिदा खिलौने बेचने नहीं जा पाई ।
"अम्मी ... कुछ खाने को दो न, बहुत तेज भूँख लगी है "रज़िया ने रशिदा का आँचल पकड़ के हिलाते हुए कहा ।

खाने का नाम सुनते ही रशिदा के चेहरे की रंगत उड़ गई , खाना ही तो न था घर में ।दो दिन से घर में खाने के नाम पर कुछ बची प्याजे ही नमक मिर्च के साथ उबाल के दे रही थी वह बच्चों को ,पर आज वह भी खत्म थी ।
रशिदा ने चूल्हे के पास रखे पुराने पड चुके प्लास्टिक के डब्बो को इस आस में उलटना पलटना शुरू कर दिया की जैसे शायद कुछ निकल आये उनमे से और वह बच्चों को खिला दे।
पर जब कुछ हो तब न निकले , रशिदा हताश हो गई ।वह वंही खड़ी बहुत देर तक जड़ बनी रही , उसे कुछ सूझ नहीं रहा था की आखिर करे क्या ?

फिर उसने सोचा की पड़ोस के असग़र भाई  से कुछ मांग लाती है यही सोच वह बाहर की तरफ चल दी किन्तु दरवाजे पर पहुँचते ही एकाएक ठिठक गई ।उसे याद आया की सुबह ही असग़र के घर गई थी खाने के लिए कुछ मांगने पर उसकी बीबी ने कितना ज़लील किया था उसे ।भिखारन तक कह दिया था उसको और तब जाके एक कटोरी चावल दिए थे , सख्त हिदायत भी दे दी थी की दुबारा मांगने न आये ।

वह रुआंसी सी होके वापस अंदर आ गई ।उसकी हिम्मत न हुई की दूसरे के घर जा के कुछ मांग लाये ।

उस रात किसी ने कुछ नहीं खाया, रशिदा ने नमक मिर्च डाल के थोडा सा पानी उबाला और उसी को पीके सब सो गए ।

सुबह बारिश बंद थी और धूप खिल के निकली हुई थी ।रशिदा ने यह देखा तो उसकी निराशा थोड़ी कम हुई ,उसने सोचा की आज बच्चे मदरसे जा सकते हैं और वह खिलौनों बेचने भी ।

उसने बच्चों को तैयार कर मदरसे भेज दिया और खुद खिलौनों की टोकरी उठा उन्हें बेचने चल दी ।वह अश्वशत थी की आज बच्चों को खाना मिल ही जायेगा।


रशिदा सारे दिन थकी हारी गलियों में घूमती रही , घर घर जाके भी देख लिया उसने पर जैसे आज कोई खिलौने खरीदने ही नहीं चाह रहा था ।शायद इतने दिनों की बारिश में लोगो की जेबे खाली हो गईं थी या लोग पहले अपना इतने दिनों से रुका हुआ काम पूरा कर लेना चाह रहे थे इसलिए उसके खिलौनो पर कोई तवज्जो नहीं दे रहा था ।

थक हार के बड़े उदास मन से शाम को वह अपने घर लौटी ,पर पता नहीं क्यों  चेहरे पर हल्का स सकून था की बच्चो ने जरूर भर पेट खाना आज खा लिया होगा।

जैसे ही वह दरवाजे पर पहुंची की तभी रज़िया भागती आई और उसकी टांगो से चिपक गई ।
"अम्मी...अम्मी... कुछ खाने को लाइ हो बहुत भूंख लगी है ... कुछ खाया नहीं " रुआंसी और बड़ी मासूमियत से बोली रज़िया
" क....क्यों...नहीं खाया ?मदरसे में सरकारी खाना नहीं मिला क्या " रज़िया की बात सुन रशिदा के पैरो की जमीन खिसकती महसूस हुई उसने आश्चर्य से पूछा ।
"अम्मी..... मौलवी साहब कह रहे थे की अब मदरसे में सरकारी खाना नहीं मिलेगा ...मौलवी साहब ने सरकारी खाना लेने से इंकार कर दिया है " आरिफ ने थकी जुबान से  जबाब दिया ।
"क्यों मना कर दिया मौलवी साहब ने सरकारी खाना लेने से ?"रशिदा को अब भी यकीं न हो रहा था इसलिए वह हर बात जान लेना चाहती थी।
आरिफ ने आगे जबाब दिया" मौलवी साहब बता रहे थे कि वह खाना हिन्दू लोग पूजा कर के देते हैं .....इसलिए अब मदरसे में खाना नहीं मिलेगा"

रशिदा पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो ,एक मदरसे के खाने का ही तो सहारा था जिसमे दोनों बच्चे भरपेट खा लेते थे और थोडा बचा के अपने अब्बा के लिए भी ले आते थे , वर्ना उसके खिलौने कभी बिकते थे कभी नहीं ।

वह यह सोच के खुद की भूंख बर्दाश्त कर लेती थी की चलो कम से कम सरकारी खाने से बच्चे तो भर पेट खाये ,पर अब वह भी आस चली गई।

वह बैठी बैठी रोने लगी ,उसे रोता देख रज़िया भी उस से लिपट के रोने लगी ।
आकाश की तरफ देखती हुई बोली -
"अल्लाह की मार पड़ेगी ऐसे लोगो पर जो गरीबो के मुंह से निवाला छीन लेते हैं ..... भूखा क्या जाने हिन्दू मुस्लिम ... भूंखे के लिए तो सब बराबर है... ये भरे पेट वाले ...लानत है इन पर! "

इतना कह उसने अपने आंसू पोछे और उठ के  चल दी किसी के घर रोटी मांगने ताकि आज भी बच्चों को भूँखा न सोना पड़े।

 बस यंही तक थी कहानी .....


फोटो साभार गूगल 

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