Saturday 13 May 2017

समझदार - कहानी

बाहर से किसी के दरवाज़े के खटखटाने की आवाज़ आई तो सुमित झट से पढ़ना छोड़ चारपाई से उतरा और जोर से आवाज़ लगाई -
"आ रहा हूँ मम्मी.....'

बाहर सुधा थी, सुमित की मां।

सुमित ने दरवाजा खोला तो सच में सुधा ही थी , सुधा ने मुस्कुरा के पूछा -
" क्या कर रहे थे? '
" होमवर्क कर रहा था .... " सुमित ने पहले सुधा की तरफ देखा और फिर सुधा के हाथ में थमी हुई पन्नी को गौर से देखा , एक क्षण के लिए उसकी आँखों में चमक आ गई और दूसरे ही क्षण गायब हो निराशा में बदल गई।

सुधा ने उसके चेहरे की उदासी पढ़ ली थी , वह तुरंत अपने हाथ में पकड़ी हुई पन्नी को आगे करते हुए बोली-
" इमरती लाइ हूँ तेरे लिए .... तुझे बहुत पसंद है न!" सुधा ने  प्लास्टिक की थैली पकड़ाते हुए कहा ,किन्तु न जाने क्यों  सुमित की आँखों से आँखे नहीं मिलाई । सुधा ने अपना हैंडबैग खूंटी पर टांगा और तौलिया ले सीधा बाथरूम में चली गई।

सुमित ने इमरती की थैली खोल के देखी तक नही ,थैली को अलमारी में पटक वह गुस्से फिर चारपाई पर जा के किताब खोल के पलटने लगा ।

सुधा बाथरूम के झरोखे से उचक के सुमित की सारी हरकत देख रही थी। एक दर्द भरी बेबसी की आह उसके मुंह से बरबस ही निकल गई, दो आंसू की बूंदे आँखों से लुढ़क के बालों से झरते पानी में मिल के अस्तित्वविहीन हो गए थे।

बाथरूम से निकल के सुधा खाना बनाने लगी , सुमित अब भी चारपाई पर  बैठा किताब में नजरें गड़ाया था किंतु सुधा को पता था कि सुमित पढ़ नहीं रहा है बल्कि गुस्से और उदासी में कंही गुम था।

खाना बनाने के बाद सुधा ने सुमित को खाना परोसा, पर सुमित अब भी खामोश और उदास था । अनमने ढंग से उसने एक रोटी खाई और उठ गया , जब सुधा ने इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि उसे ज्यादा भूंख नही है और सुधा के आने से पहले ही उसने मैगी बना के खा ली थी।

पर सुधा जानती थी की सुमित झूठ बोल रहा था ।
सुधा ने भी अनमने ढंग से एक-आध रोटी खाई और बाकी खाना उठा के रख दिया।

थोड़ी देर में सुधा और सुमित अपने अपने बिस्तर पर थे , बहुत देर तक सुधा सोने की कोशिश करती रही पर नींद उसकी आँखों से जैसे कोसो दूर हो। उसकी आँखों में दर्द के साथ उसकी पुरानी यादें ऐसे घूमने लगी जैसे कोई फिल्म की रील चला दे।

तीन  साल पहले तक सुमित के पिता रतनलाल  एक सिलाई कारीगर थे और एक फैक्ट्री में काम करते थे । सब कुछ अच्छा चल रहा था कि अचानक पता चला की रतनलाल को टीबी की बीमारी है । खांसते- खांसते मुंह से खून तक आ जाता था , बीमारी का इलाज करवाते करवाते घर का सब कुछ बिक गया यंहा तक की सुधा के तन के जेवर तक ।
फैक्ट्री से एडवांस कर्ज भी लिया किन्तु कोई फायदा न हुआ अतः एक दिन रतनलाल सुधा और सुमित को छोड़ के चल बसे।

सुमित उस समय पांचवी कक्षा में था ।घर का खर्चा , सुमित की पढाई और फैक्ट्री से एडवांस लिए कर्जे को चुकाने के लिए सुधा ने फैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया । चूंकि सुधा कारीगर नहीं थी अतः  कम वेतन में धागा काटने का काम मिला।
लगभग आधा वेतन एडवांस लिए रुपयों की भरपाई में कट जाता और जो बचाता उससे घर का खर्च और सुमित की पढाई बड़ी मुश्किल से हो पाती।

" सुमित! नींद नहीं आ रही है क्या?" सुधा ने करवट बदलते सुमित से पूछा ।
" हूँ! आ रही है ..... " सुमित ने धीरे से जबाब दिया।
" बहुत जरुरी है क्या सुमित तेरे लिए क्या वह फोन? " सुधा ने लेटे लेटे फिर पूछा।
"मेरे सारे दोस्तों के पास है , वो लोग इंटरनेट भी चलाते हैं जिसमे पढाई की सभी चीजे मिल जाती है ।गेम भी खेलते हैं ....." पहले तेजी से कह और फिर माध्यम स्वर में अपनी बात पूरी की सुमित ने ।

" हूँ.... "सुधा ने आँख बंद किये हुए कहा ।

" हूँ क्या? आप पिछले चार महीने से कह रही हैं कि दिला दूंगी पर रोज टाल देती हैं।..... वह संतोष है न ! अब तो उसके पास भी बड़ा सा फोन आ गया है । फोन में कोर्स से जुडी तरह तरह चीज़ो को देखता है । टीचर ने जो प्रोजेक्ट दिया था वह भी उसने इंटरनेट से देख के मुझ से पहले पूरा कर लिया है.....अब मैं कोई छोटी क्लास में नही हूँ .... आठवी में आ गया हूँ .... अब मुझे इंटरनेट वाले फोन की जरूरत है ,पर आप हैं कि समझती नहीं" सुमित ने जैसे अपने दिल का गुबार निकाल दिया हो।

"हूँह.... " सुधा ने फिर गहरी सांस लेते हुए कहा ।
"फिर वही हुँह...... आप इसके अलावा कुछ नहीं कह सकती.....पापा होते न तो मैं आपसे कहता भी नहीं , वो मुझे कब का दिला चुके होते" -सुमित ने झल्लाते हुए कहा और चादर से मुंह ढक के सो गया।

सुधा ने कुछ नहीं कहा बस छत की तरफ एक टक देखती रही। यंहा तो घर का खर्च और पढाई का खर्च ही नहीं पूरा हो पा रहा था उस पर 8-10 हजार का फोन कैसे लेके दे सुमित को ? एडवांस भी देना बंद कर दिया था फैक्ट्री मालिक ने , कोई जानकार भी नहीं था उसका जो इतनी रकम उसे उधार देता। बेबसी के कारण उसकी आँखों से आंसुओ की धार बह रही थी जो नीचे बिछी चादर को ऐसे गीला कर रही थी जैसे गिलास भर पानी उड़ेल दिया हो।

सुबह सुधा उठी और सुमित के लिए नाश्ता बना के स्कूल भेज दिया उसके बाद खुद भी फैक्ट्री के लिए निकल गई।


शाम को सुधा आई तो उसके हाथ में नए फोन का एक पैकेट था , जैसे ही सुमित ने फोन का पैकेट देखा तो मारे ख़ुशी के उसके मुंह से चीख निकल गई और वह सुधा से लिपट गया । सुधा हलके से मुस्कुरा दी ।
सुमित ने पैकेट खोल के देखा तो उसमें नया फोन था ठीक वैसा ही जैसा उसके दोस्त के पास था ।

सुमित के ख़ुशी का ठिकाना न था।

दो दिन बाद।

"सुमित! तू फोन क्यों नहीं चला रहा है? फोन कँहा है तेरा?" सुधा ने सुमित से पूछा।
" फोन तकिये के नीचे रखा हुआ है" सुमित ने लापरवाही से कहा।

सुधा ने फोन देखने के लिए तकिया उठा के देखा तो उसके मुंह से आश्चर्य से चीख निकल गई।
तकिये के नीचे फोन नहीं उसका मंगलसूत्र रखा हुआ था । वह मंगल सूत्र जो उसने सुमित के फोन खरीदने के लिए बेंच दिया था ।

सुमित ने पास आके कहा " मम्मी ! तुमने मेरे  फोन के लिए इसे बेंच दिया था न! यह आपके लिए कितना कीमती है यह मैं जानता हूँ.... पापा की यह आखरी निशानी है न! आपने इसे कितने दुःखो के बाद भी नहीं बेचा था ......मुझे आज सब पता चल गया इसलिए मैंने फोन वापस कर दिया और आपका मंगलसूत्र फिर उसी दुकान से खरीद लाया जंहा आप इसे बेच के आई थी....मैं इतना भी जिद्दी नहीं हूँ । मैं बिना फोन के पढ़ सकता हूँ , मुझे नहीं चाहिए इंटरनेट - सिंटरनेट ...." इतना कह सुमित सुधा से लिपट गया और रोने लगा।

इस बार सुधा की आँखों में ख़ुशी के आंसू थे , सुमित अब वाकई समझदार हो गया था ।

बस यंही तक थी कहानी....


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