Saturday 20 May 2017

जानिए कौन थी ऑस्ट्रिक जातियां-


 प्राचीन सभ्यताओं में एक अति प्राचीन सभ्यता रही थी आग्नये सभ्यता( ऑस्ट्रिक, नाग, द्रविण , कोल , किरात आदि )  यह सभ्यता आर्यो के आने से पहले भारत में व्यापक रूप से मौजूद थी । हिन्दू सभ्यता में मौजूद बहुत सी प्रथाएं आग्नये संस्कृति की ही देन है , जैसा की उदहारण के लिए चंद्रमा को देख तिथि गिनने की कला आग्नये संस्कृति की ही देन है । अमावस्या के लिए ' कुहू' और पूर्णिमा के 'राका' शब्द आग्नये शब्द भंडार से ही लिए गए हैं। कई इतिहासकारों का मत है की चावल की खेती भी उन्ही की देन है और चावल को देख के  पुनर्जन्म की परिकल्पना भी आग्नये संस्कृति की देन है जिसे बाद में आर्यो ने अपनाया और विकसित किया गया  । रामधारी सिंह दिनकर , सुनीति बाबू जैसे इतिहासकारों का यंहा तक कहना है कि गंगा शब्द आग्नये शब्द भंडार से ही आया है । आग्नये परिवार की अनेक भाषाएं भारत से लेके दक्षिणी चीन तक बिखरी हुई हैं , उनमे से कई नदी को गंग ही कहते हैं ।उत्तरी भारत के कई ग्रामीण तो नदी का पर्याय ही गंगा समझते है , आग्नेय भाषाओं में नदी के लिए ' कग, घंघ ' जैसे शब्द है।


इतिहासकार कहते हैं कि भारत में हाथी पालना, पक्षी पालना का आरंभ आग्नये जातियो ने ही किया था , भारत का निम्न कहा जाने वाला विशाल समुदाय आग्नये समुदाय से ही आया है ।
हिन्दू पुराणों में जो कथा किंदवंतियो का भंडार है वह आग्नये सभ्यता से ही आया है ।
आर्यो, द्रविड़ो , कोल , किरात वंश जब आपस में मिले होंगे तो एक दूसरे की लोक कथाएं भी एक दूसरे के घरों में प्रवेश करने लगी होंगी।

दिनकर जी तो आगे बढ़ के यंहा तक कहते हैं कि राम कथा की रचना के लिए आग्नये जाति के बीच प्रचलित लोक कथाओं का सहारा लिया गया है ।पाम्पा पुर के वानरों और लंका के राक्षसों की जो विचित्र कल्पनाये मिलती है उनका आधार आग्नये लोगो की लोक कथाएं ही रही होंगी।

लोक कथाएं और किद्वंतिया पहले ग्रामीण लोगो में  फैलती है उसके बाद साहित्य में सम्लित होती है।
बौद्ध जातकों की जो कथाएं हैं वे लोक कथाओं से ऊपर उठ के बौद्ध साहित्य तक पहुंची और उसके बाद पुराणों ने उनकी नकल की ,इसी कारण पुराणों और बौद्ध जातक कथाओं में कई समानता मिलती है ।

इतिहासकारो के अनुसार देवर - देवरानी, जेठ जेठानी की प्रथा आग्नये सभ्यता की देन है । सिंदूर प्रयोग और अनुष्ठानों में  नारियल पान रखने की प्रथा भी आग्नये सभ्यता की देन है । सिंदूर रजस्वला
का प्रतीक होता था जो की कृषि अनुष्ठानों में प्रजन का द्योतक था । सिंदूर के बारे में सुरेंद्र मोहन भट्टाचार्य अपने ' पुरोहित दर्पण' में साफ़ कहते हैं कि सिंदूर प्रथा आर्यो की प्रथा नहीं थी बल्कि आर्यो ने आर्येतर जाति से ग्रहण किया है। सिंदूर का न कोई वैदिक नाम है और न सिंदूर दान का कोई मन्त्र । सिंदूर मूलतः नाग लोगो की वस्तु है।

अवतारों में मत्स्य, वरहा, कच्छ की कल्पनाये आर्यो ने आग्नये जातियो से आई हो इसमें कोई बड़ी बात नहीं क्यों की आर्यो ने इन्हें अपना तो लिया था किंतु इनका महत्व उनके लिए विशेष नहीं रहा ।
एक बात और ध्यान दीजिए की ब्राह्मणों का सारा कठोरतम पहरा वेदों पर ही रहा ,उसने शूद्र और  स्त्रियों को वेदों से दूर रखा जबकि पुराणों पर ऐसी कठोरता नहीं बैठाई।
निश्चय पुराणों की कहानियों में ऐसे मिश्रण थे जो अर्योत्तर जातिओं से आये थे इसलिए ब्रहामण उन्हें अपना नही मानता था ।



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