Saturday 5 May 2018

आदि शंकराचार्य - भारत के पतन का कारण?


 सिंधु सभ्यता में  मुद्रा, तौलने के बाट, सील, बर्तन, औजार,धातु  आदि बहुत से ऐसे अवशेष मिले हैं जिससे यह निर्धारित होता है कि आज से 3- 5 हजार पहले संधु सभ्यतावासी विदेशो जैसे सुमेर ,सुसा( ईरान) , बेबिलोनिया, मिस्र आदि देशों में बड़े पैमाने पर व्यापर करते थे। कृषि, मछली पालन, मिट्टी और धातु के बर्तन तथा औजार बनाना, जेवरात बनाना ,नक्कासी करना आदि अन्य मुख्य धंधे थे जिनका वे व्यापार करते थे।

इतिहासकार कहते हैं कि सुमेर राज्य सिंधु व्यपारियो का उपनिवेश था जंहा से वे इजिप्ट से लेके क्रीट द्वीपो तक व्यापार करते थे । इजिप्ट के सबसे पुराने पिरामिड में जौ और गेंहू की वही प्रजाति पाई गई है जो सिन्धु नगरों की खुदाई में मिली थी।

सिन्धु सभ्यता में व्यापार और विज्ञान उस काल में उन्नत माना जाता था।विज्ञान और व्यापार की वह उन्नति बौद्ध शासको ,चन्र्दगुप्त , बिंदुसार, अशोक,हर्ष आदि  के समय चरम पर पहुंची।

चंद्रगुप्त के समय हैलेनवादियो से वैवाहिक रिश्ते कायम किया ,आर्थिक और व्यापारिक लाभ के संबंध भी बनाये गएँ।

बिंदुसार ने अपने राजकाल में यूनानियों से व्यापारिक सम्बन्ध ।

अशोक के समय बौद्ध धम्म के साथ साथ विज्ञान-व्यापार भी देश विदेश पहुंचा।

प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्ष के काल में ही आया ,  उस समय विज्ञान,कला , साहित्य, व्यापार  बहुत उन्नत था । जेवरातों से लेके रेशम और सूत का व्यापार होता था ।

बौद्ध राज्यओ के समय ही नालंदा, तक्षशिला( तक्कसिला) जैसे बौद्ध  विश्वविद्यालयों का निर्माण किया जिसमे ज्ञान लेने दुनिया भर के विद्यार्थी आते थे। शून्यवाद और विज्ञानवादी परम्परा खूब फल फूल रही थी।

आदि शंकराचार्य का काल 7-8 सदी माना गया है, यह वह काल था जब हर्ष के बाद बौद्ध धर्म के संरक्षक कमजोर हो रहे थें। ऐसे में शंकराचार्य बौद्ध परम्परा अपना के बौद्ध धर्म को समाप्त करने निकल पड़े । बौद्ध परम्परा के शून्यवाद और विज्ञानवाद की नक़ल कर वे ब्रह्मात्मैक्य -अद्वैतवाद का गठन करते हैं । इसलिए रामानुज और अन्य आधुनिक विद्वानों ने उन्हें ' प्रच्छन्न बौद्ध' कहते हैं।

शंकराचार्य 'जगत मिथ्या - ब्रह्म सत्य' की अवधारणा ला के संसार को माया कह देते हैं। बौद्ध परम्परा का कारण- कार्य श्रंखला  की तार्किकता निष्पत्ति है,  जिसके  आभाव में किसी वस्तु की विद्यमानता की कल्पना नहीं की जा सकती । शंकराचार्य इसी कारण- कार्य श्रंखला के वास्तविक स्वरूप को ही विकृत करने का प्रयत्न हुए कारणता निषेध के परिणाम स्वरूप जगत मिथ्या का प्रतिपादन करते है ।

शंकर का वेदांत कहता है जो दिखता है वह सब मिथ्या है ,जगत के रूप में जो हम परिवर्तन देख रहे हैं वह वस्तुतः मिथ्या है ,माया है ...झूठ है ,केवल मानसिक आरोप है जिसे वेदांत की भाषा में 'अध्यास 'कहा गया । जगत केवल नामरूपात्मक है,उसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं। यह बौद्धो के प्रतीत्यसमुत्पाद की तार्किकता का विकृत निषेध था। वेदांत ने बौद्ध  कारणवाद का खंडन करते हुए कहा सृष्टि विकास में कारणता नही है ,वस्तुतः यह विकास है ही नहीं जंहा अस्तित्व ही न हो वँहा विकास कैसा और किसका? बल्कि यह माया है।शंकराचार्य ने मनु को आधिकारिक रूप से अपनीं दार्शनिक रचनाओं में बार बार स्थापित किया है, अगर हम कहें कि मनु को जिंदा करने वाले शंकराचार्य ही थे तो अतिश्योक्ति न होगी।

शंकराचार्य अपनी बात की स्थापना के लिए तर्कबुद्धि और दैनिक जीवन के अनुभवों का ही तिरस्कार करने से नहीं चूकते।

इस प्रकार आदि शंकराचार्य भारतिय समाज को ऐसे अँधेरे कुएं में धकेल देते हैं जंहा चारो मठो की तीर्थ यात्रा करना , वर्ण धर्म का पालन करना, ब्राह्मण श्रेष्ठता, आत्मवाद  आदि ही प्रमुख क्रियाये और अंग रह जाते हैं। तर्कवाद, विज्ञानवाद का मार्ग पूरी तरह से अवरोध कर उसे काल्पनिक ब्रह्म के चरणों में समर्पित कर देते हैं।

आप देखेंगे कि शंकराचार्य के बाद ही देश गुलामी और अंधकार की तरफ अग्रसर हो जाता है।समाज विदेशियो के हाथों पराजय स्वीकार करता रहता है, विज्ञान और व्यापार कोई प्रगति नहीं करते बल्कि ब्रह्म आदि काल्पनिक अवधारणाओं में उलझ अपनी रौशनी गंवा बैठते हैं। समाज का पतन शुरू हो जाता है कि मुट्ठी भर विदेशी आसानी से भारत पर कब्ज़ा कर लेते हैं। शिक्षा ,व्यापार और विज्ञान की प्रगति उलटी दिशा में हो जाती है ।

यदि कहें कि देश का और समाज का जो पतन हुआ उसके लिए आदि शंकराचार्य मुख्य रूप से जिम्मेदार रहे हैं तो गलत न होगा। आठवी सदी के शंकर के बाद ही भारत मुख्य रूप से गुलामी की तरफ बढ़ा, जातिया व्यवस्था मजबूत हुई।